
वैसे तो इस विवाद के पीछे बहुत से तर्क विश्व भर के विद्वानों, धार्मिक नेताओं, पढे व अनपढों के मध्य फैले और फैलाये गये है जिसको सुनने या पढने लगें तो मनुष्य का सारा जीवन ही इस संवेदनशील विषय के अनुशीलन में व्यतीत हो जायेगा फिर भी वह शंकाशील ही रहेगा और इस विषय के बारे में स्पष्टता प्राप्त करने में समर्थवान न बन पायेगा । खान-पान की आदतें व्यक्ति में कुल ,काल,देश से मिलती है जिसे वह वही व्यक्ति परिवर्तित कर पाता है जो प्रयोगधर्मा एवं संकल्पधारी होता है।ऐसा भी वह कुछ काल, परिस्थिति,कुल-मर्यादाओं की सीमाओं के अंदर रह कर,अपनी स्वादेंद्रिय एवं अभिरुचियों के मानकों को आधार बना कर ही कर पाता है जो बिरला ही होता है ।
इस विवाद को वर्तमान संदर्भों में भी तोले जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। मेरे द्वारा इस तथाकथित "वैयक्तिक चयन" को पूरे मानव-शास्त्र के प्रागैतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक मापनी की तराजू पर रख कर आंकने की चेष्टा की गयी है जिस द्दृष्टिकोण के चलते , यह विवाद धर्म-संप्रदाय के खेमे से निकल कर एक उच्च एवं व्यापक परिसीमा स्वत: ही अंगीकार कर लेता है।
यह बिंदु निर्विवाद है कि मानव अपने प्रागैतिहासिक काल में वन्य पशुओं का शिकार कर जीवन यापन करता था । यही उसकी दिनचर्या थी और वैश्विक मानव के विकास का प्रस्थान-बिंदु ।अग्नि की खोज के बाद वह भोजन पकाने की कला जान गया जिससे उसका व्यंजन सुस्वादु और अपेक्षाकृत कीटाणु-मुक्त हो गया था।
उस समय विशाल व सघन वनाच्छादित प्रदेश हुआ करते थे अतः वह वन्य पशुओं पर ही निर्भर रहने लगा । जिन जगहों पर सघन वन स्थित थे ,वहां की मानव-प्रजातियां आज भी वैसे ही रह रही हैं जिन्हें आदिम जन-जाति कहा जाता है क्योंकि वे अपनै पर्यावरण के अंदर पूर्ण आत्म-निर्भर थे ।
मानव ने जब कृषि का आविष्कार किया तो वह अपनी पौष्टिक आवश्यकताओं की भरपायी धरती से प्राप्त उपज से करने लगा । बीज बोना और बीज निकाल कर पुनः वैसी ही काल-परिस्थितियां आने पर , धरती में बीजारोपण करना उसके लिए एक नया वैज्ञानिक प्रयोग तो था ही, साथ ही साथ वन्य-जंतु तथा वन से प्राप्त फल-फूल- कन्दमूल आदि भोज्य पदार्थो पर उसकी परतंत्रता में भी कमी लाने वाला सिद्ध हुआ। वह अब स्वावलंबी हो कर निज का कृषि-कौशल-ज्ञान विकसित कर अपनी एवं परिवार की उदर-पूर्ति हेतु ''वीर भोग्या वसुंधरा" की उक्ति को चरितार्थ करने लगा था ।
इधर वे समाज जो वन-प्रांगणों के पास थे वे आदिवासी ही रह गये क्योंकि उनकी क्षुधा-निवृत्ति हेतु उनके इर्द-गिर्द वन्य-प्राणी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे अतः कोई नये प्रयोग या प्रयत्न करने की उनके द्वारा आवश्यकता न समझी गयी ।
जब जनसंख्या बढी तो वे कुछ जंगली जानवरों को जो शाकाहारी व दुधारू थे, पालतू बना कर अपने साथ रखने की कला सीख चुके थे आवश्यकतानुसार उन्हें भोजन के रूप में उपयोग में लाना या उनके वंश को बढाने में महारथ हासिल कर चुके थे जिसके कारण सामिष हिंसक वन्य-जंतु भी मनुष्यों पर सीधे आक्रमण नहीं करते थे।ऐसे अहिंसक पर्यावरण में कुछ सुधारकों ने यह कहना शुरू किया कि शेर तभी हिंसक होता है जब मनुष्य के अंदर हिंसा की भावना उपजती है । ऐसे गुरुओं ने "अहिंसा" पर अपने नये धर्म की आधार शिला रख दी जो कि वैदिक धारा से आ रही बलि देने की परंपरा से कुछ पृथक थी । इस प्रकार एक नैतिक मानवतावादी नये धर्म का उदय हो गया।खान- पान की आदतों को भी इस नव धर्म का अंग बना दिया गया ताकि मनुष्य निडर होकर, शांति और प्राणिमात्र के प्रति सद्भावना से चिर काल तक अपना दैवी साम्राज्य स्थापित कर सके। इधर हिंसक जैविक प्रजातियां भी मानव-रक्त के मुंह न लगने से मनुज के प्रति वैर भाव को त्याग चुकी थी। उल्लेखनीय होगा कि यह रूपांतरण केवल भारत में ही बुद्ध- महावीर आदि के मार्ग दर्शन में संपन्न हो सका। शेष विश्व में पालतू जानवरों के प्रति भी संरक्षण, अहिंसा जैसा करूणा भाव न पैदा हो पाया क्योंकि उनमें से रूस, चीन आदि में रहने वाले लोगों के भूभाग में खेती संभव न हो पाती थी ,भूमि की उर्वरता भी कम थी । इसके विपरीत, सहस्त्राब्दीयों तक अपनी इस 'जीओ और जीने दो' की नीति पर भारतवर्ष चल कर सामिष जीवन-शैली पर अपनी निर्भरता कम कर सका, वहीं शेष भारतीय समाज भी कृषि कर्म को अपना कर अपनी आनुवंशिकी से सामिष पदार्थों के प्रति अपने स्वाद-तंतु के झुकाव को उच्च धर्मावलम्बियों की देखा देखी कम कर सका । जो न निकाल सके ,वे उभयभक्षी कहलाये और अपने घर में केवल निरामिष पालतू जानवरों को रख कर संतुलित जीवन व्यतीत करते रहे।
इनमें जो कट्टर निरामिष जीवन शैली के समर्थक थे उन्होंने 'जैन भोजन' के नाम का खोज की जो वैष्णव थाली से पृथक थी।
सामिष माननीयों के कट्टरपंथ में भी इसी प्रकार दो तीन खाद्य- शैली के लोग हुये जो सरीसृपों को भी भोग-योग्य मानते हैं जैसे चीनी जापानी आदि।
आज कोरोना विषाणु के तंतु भी मांसभक्षी जानवरों के प्रति उपजे अतिवादी झुकाव से उनके ही अंतःस्रावी ग्रंथि से उपजे हैं इसीलिए कोरोना में उनका आधा ही डी एन ए उपलब्ध हो सका जो कि 'आर एन ए' कहलाया जाता है। उन्हीं से "श्रोत आर एन ए " की पहचान कर यह वैक्सीन बनाई गयी है।
अभी ऐसी कोई सर्वे रिपोर्ट नहीं आयी है जो इन वैक्सीन का प्रभाव दोनों प्रकार के भोजन के उपभोक्ताओं पर टीके के प्रभाव का पता चला सके ,कदाचित इसीलिए कोरोनाग्रस्त लोगों पर इस वैक्सीन के प्रयोग को मना किया जाता है।
यह गपोडियों की कल्पना ही है कि यदि सभी निरामिष बन जायें तो धरती जानवरों से भर जायेगी और इसके विपरीत यदि सभी मनुष्य सामिष हो जायें तो वन्य प्राणीयों का धरती से जीवन समाप्त हो जायेगा।
ऐसा कदापि नहीं होने वाला क्योंकि पहली बात तो यह है कि फसलों के तीन चक्र होते है ,यदि एक फसल अकालग्रस्त हो भी गयी तो दूसरे फसल आने तक लोग इंतजार कर लेंगे। जब भारत में अन्न का संकट हुआ था तब भी अमरीका से प्राप्त गेहूँ पर हम जिंदा रहे थे ,कोई नवसामिष तो नहीं बना और अब कोरोना आने पर भी टीकाकरण की दवाईयां उतने ही पैसों से आयातित करनी पड रही हैं जितना बाहर से अन्न के आयात पर।
कोरोना की उत्पति को लेकर हम चाहे जितनी बहस कर लें यह बात तो जग मान्य है ही कि यह कोई जैविक संरचना लिए हुये अर्ध-तन जैविक (जिसका आर एन ए होता है पर डी एन ए नहीं होता ) विषाणु है जो वनस्पति जगत का मोहताज नहीं वरन् प्राणी जगत का में राहु -केतु जैसा छद्म-छाया जीव है । यह चीन के वुहान प्रांत का मूल निवासी है। यह अलग-अलग जलवायु- क्षेत्र में जा कर मानव काया में अपनी अर्द्धांगिनी तलाश कर नये नये बच्चों को जन्म देने में समर्थ होता है। हर जगह ये अपनी राजधानी "कोरोनासिटी" के नाम से पुरूष तन में बना लेता है जहाँ मानव का हृदय होता है जिसे हम भारतीय ईश्वर का वास मानते हैं ।यह विषाणु उसी तरह फेफडों के वायु-गेटों को बंद कर देता है जैसा कि रोमा-सिटी के राजा ने कोलोसियस के गेट बंद कर जन संहार किया था। यही मुख्य कारण था पैपल किंगडम की स्थापना का , पहले ग्रीक में, फिर विश्व में।
मानव इतिहास में ऐसा कोई समाज नहीं मिलता जो शुरू से ही निरामिष रहा हो यानी कृषि की उपज पर जिंदा रहा हो क्योंकि मानव शिकारी से कृषक बना न कि कृषक से शिकारी ।वैदिक काल में भी ,यद्यपि उनकी दिनचर्या कृषिकर्म व गोधन पर आधारित थी ,एक शुनःशेप की कथा आती है जो अपने पिता को कहता है कि यज्ञ-वेदी पर उसकी आहुति दी जाय बजाय निरीह बेजुबान जानवरों की बलि। वैदिक काल में पंच नखों वाले प्राणियों को अखाद्य बताया गया है यानि शेष को खाद्य ।
निष्कर्ष
कोरोना हमारे असीमित ,अमर्यादित जीव-हत्या (प्रकृति-प्रदत्त फूड-चेन को तोड कर ) व मानव भ्रूड-हत्या (प्राकृतिक लिंगानुपात बिगाड़ने की प्रवृत्ति ) का ही परिणाम है ,जिसका इलाज भी सामाजिक चेन को तोड़ने व साबुन से धोकर स्वच्छ हाथों व एकरंगी नीति अपना कर से
सामाजिक सुधार के सकारात्मक कानून ला कर ही किया जा सकता है।
प्रदीप कुमार "खालिस"
चल-वाक् 9082803377।
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