
कोरोना- जैविक कालासुर
जो कहते थे कि उन्हें मरने तक का समय नहीं, अब तो मिल गया न भरपूर समय जिस "काल" का अभाव हर काल में रहा है । जो कहते थे -" खाने तक का समय भी नहीं मिल पाता , इतना काम है " तो भाई मेरे ,अब तो कुदरत ने इतना वक्त दे ही दिया ।
अब शिकायत करना छोडो और जुट जाओ पत्नी के साथ खाना पकाने में । आज मौका मिला है, जो चाहो ,रसोई में मनचाहा बना-खा सकते हो। कल समय हो ,न हो । जिन्हें कल तक अपने पार्टनर से बात करने की फुरसत तक न मिलती थी , वे बीवी-बच्चों को आज पूरा समय दे सकते हैं , बेइंतिहा प्यार जता सकते हैं । न बीबी की कोई किच-किच कि "ये कोई काम-धंधा तो करते नहीं। बस घर पर ही हर समय निठल्ले बैठे रहते है।" कोरोना की मेहरबानी से उसी बीबी ने अब बाहर जाने पर सबसे पहले रोक लगा रखी है, वह भी "न जाओ सैया ,छुडा के बहियाँ " वाली सत्तर के दशक की भारतीय फिल्मों की विवशता एवं कातर स्वर-लहरी लिए नहीं, वरन् पत्नी द्वारा साधिकारपूर्ण निषेधाज्ञा की मुनादी पीट कर ।
बेरोजगार , आंशिक रोजगार एवं पूर्ण कालिक कामगारों के बीच का भेदभाव विलुप्त करते हुये इस महामारी ने सबको एक लाइन में खडा कर दिया ,भारतीय रेलवे में यात्री की भांति । बस एक साधारण श्रेणी का टिकट प्राप्त कर किसी भी कोच में बैठने की सुविधा प्रदान कर । कोरोना के धरती पर जन्म कै बाद सभी वर्ग-वर्ण-जाति के भेद मिट से गये हैं क्योंकि वे सारे नियम कानून सार्वजनिक स्थलों के लिए ही गढे गये थे ,वे कोड घर में या माँ के पेट से गृहावतरण की यात्रा के दौरान थोडे ही लागू हुआ करते हैं ।
कोरोना ने तो नये भारत का नव निर्माण कर ही दिया है या यू कहें कि राम-राज्य ला ही दिया है पर हम सब की देखने की दृष्टि अवश्य अलग-अलग होती है ।
घर पर आने के बाद हाथ-पैर धो कर ही भोजन को हाथ लगाना , स्वच्छता-शुचिता के प्राचीन जीवन-मूल्यों की स्थापना, अपरिग्रह को जीवन में उतारना , राम की तरह एकपत्नीव्रत का पालन करना आदि सभी जीवन-शैली सतयुग के राम-राज की ओर भारत राष्ट्र को ले जाने की ओर इशारा कर रहीं हैं, फिर हम कोरोना का रोना क्यों रोयें?
जो भारत की दैत्याकार जनसंख्या इमर्जेंसी लागू कर भी न कम हो पाई और एक परिवार में चालीस पैदा करने के सार्वजानिक आवाह्न पर खत्म हुयी , वह कोविद-19 व कोविद-21ने बिना किसी भेदभाव के आयु-क्रम को उल्टे पकड़ने पर कर तेजी से घटनी शुरू हो गयी । कोरोना पूछता है कि हे देवेन्द्र, बताओ कि पहले कन्या भ्रूण -हत्या क्यों करते रहे । करो न अतिरिक्त बच्चे पैदा ! लिंगानुपात अपने आप सुधरेगा जो तुमने बिगाडा है। जब मैं आ गया तब जानना चाहते हो ये कोरोना क्यो आया, कौन लाया, स्वयंभू हैं या प्रयोगधर्मा कालासुर।
अब मै ही समाधान देता हूँ । मेरा विनाशकारी रूप तो देख लिया । मेरा कलयाणकारी रूप भी है।
तुम तीन तलाक लाये। कन्या भ्रूण हत्या पर ,दहेज प्रथा रोकने ,अंतर्धार्मिक वैवाहिक संबंधों को रोकने का कुत्सित प्रयास किया । गुजरात माडल लाने के बाद भी जब दहेज की जगह मेहर की प्रथा कितनी अच्छी है उसको अंगीकृत न कर सके और भारतीय संसद में समान नागरिक संहिता के बैनर तले आखिर मेहर की रीति को अपनाने हेतु कोई कानून क्यों नहीं लाये, क्यों अधिसंख्य लोगों पर कोई कानून आज तक नहीं बनाये और सात जन्मों का रिश्ता होने का ढोंग रचते रहे फिर भी न्यायासन से तलाक की अनुमति प्रदान करने की नयी परंपरा भी इसी आजाद हिन्दोस्तान में डाली गयी । आज सरकार को गरीब कन्याओं के विवाह पर टैक्स की धनराशि खर्च करनी पडती है ।आज कन्यायें आर्थिक बोझ मानी जाती हैं ।अगर मेहर देना बाध्यकारी बना देते तब ये " भारत की लक्ष्मीयां" किसी भी संप्रदाय में पैदा होती,इनके भाव होते , इनकी मांग होती , इज्जत होती । इन निरीह अजन्मी आत्माओं के लिए तो तब तुम ही "कोरोना" बन चुके थे और अब पूछते हो ,कोरोना कहाँ से आया,स्वर्ग से या पाताल से ।
सकारात्मक देखो तो बहुत कुछ "पोजिटिव" दिखेगा , कोरोना को छोड़ कर ।
- प्रदीप कुमार "खालिस"
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