
सफलता वास्तव में किसी कार्य की पूर्णता के उपरांत प्राप्त परिणाम अथवा व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा निर्धारित मापदंडों तक पहुंच से आकलित किया जाता है। सफलता का दूसरा पर्याय यह भी है कि प्रयास करने वाले व्यक्ति तथा सफलता का बोध करने वाले व्यक्तियों की मनःस्थिति इसको निर्धारित करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सफलता व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूहों की संतुष्टि के स्तर पर निर्भर करती है। सफलता किसी व्यक्ति द्वारा धनार्जन, पद की अवधारणा हो सकती है। किसी के लिए खेल या परीक्षा में उत्तीर्ण होना सफलता का द्योतक होता है। यह सफलता का सूत्र उपभोगवादी सभ्यता के सामूहिक दबाव और बाजारवादी संस्कृति के प्रभाव से नहीं, अपने अनुभवों की स्वतंत्र सोच और विवेक दृष्टि पर आधारित हो सकता है, जो सिद्धांतों पर चलने वाले व्यक्ति के लिए कठिन तो है, पर असंभव नहीं है। जो बड़े लक्ष्य और आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं उन्हें पाने के अथक प्रयासों में भी एक दुर्निवार आकर्षण होता है। अपनी पूर्णता की प्रतीक्षा में वे सबसे सुदंर और सार्थक होती हैं।
मौजूदा दौर में व्यक्ति की सफलता का एकमात्र पैमाना भौतिकतावादी संस्कृति के नियमों पर आधारित है, जिसमें बहुत से अमानवीय दबाव स्वीकार करना और बाजार की निर्मम प्रर्तिस्पर्धा में शामिल होना जैसे अनिवार्य शर्त बन गई है। सफलता को सर्वोपरि मानते हुए तमाम सामाजिक मूल्यों को दरकिनार करना जैसे सामान्य बात हो गई है। जबकि सफलता का वास्तविक अर्थ वह है, जो व्यक्ति के अस्तित्व का विकास करे, संकीर्णता से मुक्त करके उसकी दृष्टि को उदार और व्यापक बनाए।
सफलता की श्रेष्ठता सफलता को व्यक्तियों में समुचित तरीके से परिभाषित कर सकती है। सफलता की श्रेष्ठता से अभिप्राय सफलता के लिए किये गए प्रयासों और उन प्रयासों में सन्निहित सुविधाओं से होता है। जैसे किसी किसान या मजदूर का बेटा जिसको आधारभूत सुविधाओं की कमी की वजह से उचित पठन-पाठन की सामग्री, मार्गदर्शन या समय नहीं मिल पाता, फिर भी वह अपने अथक प्रयासों से दूसरे दर्जे का अधिकारी या बाबू भी बन जाता है तो वह किसी अधिकारी या सक्षम व्यक्ति के बेटे जो बड़ा अधिकारी बना हो उससे अधिक सफल कहलायेगा। दूसरे शब्दों में किसी किसान या मजदूर का बेटा आवश्यक सुविधाओं के अभाव के वावजूद शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या बड़ा अफसर बनता है तथा वह अपने बेटे को जिसे बाद में वांछित सुविधाओं के साथ बहुत बड़ा अफसर बनाता है, उससे अधिक सफल कहलायेगा क्योंकि उसने सुविधाओं के अभाव में सफलता प्राप्त की होती है जबकि उसके बेटे ने समुचित सुविधाओं के साथ सफलता प्राप्त की होती है। सफलता प्राप्ति के रास्ते में उपयोग किये गये संसाधनों तथा आये हुए व्यवधानों से सफलता को आँका जाना चाहिए न कि पद की श्रेष्ठता को।
सफलता का वही अर्थ सार्थक और मानवीय हो सकता है, जिसमें जीवन को देखने की स्पष्टता हो, जो क्षणिक, संकुचित और छोटी महत्त्वाकाक्षांओं पर निर्भर न हो और जो अपनी समग्रता में कालातीत हो। यह सफलता समाज के हित के लिए मूल्यवान और युगीन दृष्टि से उदार हो तथा जीवन के बोध को उसके उत्कर्ष की उंचाई तक और उसकी अर्थवत्ता की पराकाष्ठा तक ले जा सके। प्रत्येक दौर में समाज में सफलता का एक निश्चित पैमाना होता है। हम उसी पर लोगों को कसने के आदी हो जाते हैं। लेकिन ज्यों ही कोई उन्हीं पैमानों पर सफल होता है, खुद सफलता का उसका पैमाना बदल जाता है। इसलिए हम बहुत से सफल व्यक्तियों को असंतुष्ट पाते हैं। ऐसे लोग एक समय के बाद खुद को असफल मानना शुरू कर देते हैं। असल में हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। बहुत सी चीजें पा लेने के बाद भी लोग दूसरों से अपनी तुलना करते रहते हैं। जो भी चीज उनके पास नहीं होती उसे लेकर वह परेशान हो जाते हैं। संभव है कि एक सफल व्यक्ति किसी को हमेशा आराम करता देख दुखी हो जाए और यह सोचकर ही खुद को असफल घोषित कर दे कि उसके जीवन में सुकून नहीं है। बुद्धिजीवी, संतों-विचारकों ने सफलता की अवधारणा को हमेशा संदेह की नजर से देखा क्योंकि यह हमेशा अस्थिर रहती है। ऊपरी तौर पर भले ही इसका निश्चित रूप दिखाई देता है मगर हमारे मन के भीतर यह रूप बदलती रहती है।
जीवन मूल्यों के दृष्टिगत, सुविधापरक रास्तों से हट कर किसी नए आदर्श की खोज के लिए संघर्ष का करना सफलता का नया मानक बन सकता है। सफलता की इस अवधारणा में नैतिकता, मानवीय मूल्यों और प्रकृति के लिए सहानुभूति के लिए कोई जगह जरूरी नहीं, जो इसकी एकांगी और संकीर्ण परिकल्पना कही जा सकती है। वह सफलता, जो मानवीय अस्तित्व की सार्थकता की कीमत पर ही संभव हो, चेतना और विवेक को उत्पाद में बदल कर मिलती हो, तो वह समाज के लिए निरर्थक और घातक है। यह संवेदनहीन समय की विवशता भले हो, लेकिन इसी निर्मम परिवेश और परिस्थितियों के दबाव में से अपनी वास्तविक सफलता की खोज करना ही एक सार्थक कोशिश मानी जा सकती है।
सफलता का वह रूप सार्थक हो सकता है, जो एक ही लीक से अलग हट कर किसी नए विकल्प के मार्ग की चुनौतियों से जूझते हुए प्राप्त की जाए। इसका कारण स्पष्ट है और कहा भी गया है कि मूर्खों की सफलताओं की अपेक्षा बुद्धिमान और विचार संपन्न मनुष्य की गलतियां समाज के लिए अधिक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती हैं, उसका निर्माण कर सकती हैं। वह सफलता जो भीड़ के अनुकरण की प्रवृत्ति से नहीं, बल्कि लीक से हट कर, अपने संघर्ष से प्राप्त हो, व्यक्ति की चेतना को आंतरिक रूप से समृद्ध करे और उसे नए विकल्पों और अज्ञात संभावनाओं की ओर ले जाए।
अंततः सफलता व्यक्ति या व्यक्तियों की मनःस्थिति पर ही निर्भर करता है। आदि काल में जानवरों को मारकर भोजन इकट्ठा करना सफलता द्योतक होता था मध्यकाल और वर्तमान में अधिकांश द्वारा धनार्जन और पद की प्राप्ति को सफलता समझा जाता है।
सादरः
डॉ० सीएच० एल० शीलू पाल
वैज्ञानिक एवं प्रबंध निदेशक
लखनऊ।
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