
अमूमन यह चर्चा सामाजिक व्यक्तियों द्वारा लगभग सभी बैठकों में सुनने को मिलती है कि पाल समाज में उच्च दर्जे के नेताओं की संख्या में निरंतर कमी होती जा रही है या यूँ कहें की राजनैतिक पार्टियों द्वारा समाज के नेताओं की उपेक्षा की जा रही है तथा समाज को उचित राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा रहा है, जिसकी वजह से पाल समाज राजनैतिक हाशिये पर आ गया है। कमोवेश लगभग सभी लोगों का मानना है कि बिना समुचित राजनीतिक हैसियत/पैठ अथवा प्रतिनिधित्व के समाज की तथा व्यक्तियों की विकासोन्मुख प्रतिभा का अनवरत ह्रास हो रहा है। इस हीनता को सोचना और मानना तथा तदनुरूप अपनी मानसिकता को विकसित करना, या समाज को करने देना, साथ ही इसके इर्द-गिर्द चर्चा और परिचर्चा करना कहाँ तक जायज है।
प्रायः यह भी बहुतायत ही प्रयोग किया जाने वाला वाक्य है कि पाल समाज में एकता, सहभागिता और चेतना का अभाव है। समाज की यही एकता, सहभागिता और चेतना का जिक्र राजनैतिक परिचर्चाओं में अत्यधिक किया जाता है जबकि इस एकता, सहभागिता और चेतना का जिक्र समाज के उत्थान के अन्य उपादानों में किया जाना सम्भवतः अधिक प्रासांगिक होगा। जैसे की गुणवत्तापरक व्यावसायिक तथा तकनीकी शिक्षा के साथ व्यवसाय और नौकरी की चेतना और सहभागिता तथा प्रसार-प्रचार की एकता। जिस दिन से समाज में राजनैतिक पैठ की महत्ता से ज्यादा चर्चा और परिचर्चा सामाज के उत्थान के अन्य आयामों पर होगी उस दिन से निश्चित ही पाल समाज की महत्ता की परख करने वाले और देने वाले अधिक होंगे। साथ ही जिस दिन पाल समाज सामाजिक, बौद्धिक और आर्थिक रूप से अधिक सशक्त होगा उस दिन हम राजनैतिक हैसियत स्वतः हासिल कर लेंगे। उदहारण के लिए उत्तर प्रदेश का सिंधी समाज। पाल समाज के नेता हमेशा समाज की बैठक की संख्या बल पर अधिक चिंतित होते हैं और अनेक समूहों में होने की दुहाई देते हैं। और शायद उनकी सोंच का दायरा भी सामाजिक भीड़ दिखाने तक होता है न की गुणवत्तापरक बैठक का। सिंधी समाज कभी भी बैठक की भीड़ अथवा संख्या बल पर केंद्रित नहीं होता। एक व्यक्ति ही अपने आप को दूसरे समाज के सौ व्यक्तियों के बराबर समझता है और सामने वाले को विश्वास भी दिलाता है की वह राजनैतिक हैसियत हासिल करने और पार्टी को सहयोग करने में हर तरह से सक्षम है। जिसकी परिणति यह है कि सिंधी समाज प्रदेश में लगभग एक प्रतिशत की आबादी होने के बावजूद पाल समाज से बेहतर राजनैतिक स्थिति में है। राजनैतिक पार्टियों द्वारा उनकी हर बात सुनी जाती है और उसपर अमल भी किया जाता है। कोई भी पार्टी हो सिंधी समाज की उपेक्षा करने की जहमत नहीं उठाती। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक उनके सामाजिक कार्यक्रमों में शिद्दत से शरीक होते हैं और अपनी शान समझते हैं चाहे भीड़ दो सौ की ही क्यों न हो।
कहने का आशय यह है कि पाल समाज के नेता या अगुवा यदि वास्तव में समाज का हित चाहते हैं तो अपनी राजनीतिक बैठकों में समाज की राजनैतिक दुर्दशा से ज्यादा चर्चा समाज के उत्थान के अन्य पहलुओं पर करें, जिससे समाज बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिक सक्षम बनने की तरफ अग्रसर हो। राजनैतिक पहुंच की हीन भावना से आगे निकल कर विकासोन्मुख प्रतिस्पर्धा में शामिल होकर स्वयं को, परिवार को, समाज को तथा साथ ही नेताओं को एवं उनकी आवाज को उचित स्थान दिला सके। बड़ी बात ये है कि समाज के स्वघोषित अगुवा, शैक्षणिक और सामाजिक जागरूकता का प्रसार कर रहे कुछ सामाजिक व्यक्तियों से अपेक्षा भी करते हैं कि यही व्यक्ति उन महानुभाव को भी आगे ले जाने में सहयोग करे। यह कहाँ तक जायज है। यहाँ यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं है कि समाज के लगभग सभी नेताओं में यह हैसियतध् साहस या सक्षमता नहीं है कि समाज के व्यक्ति के साथ अन्याय होने पर अपने बूते एफ्० आई० आर० तक लिखवा सके। पाल समाज के नेता उछल-कूद कर सकते हैं आधारहीन दिलासा दिला सकते हैं लेकिन न्याय दिलाने में लगभग न के बराबर। अपवाद हो सकता है लेकिन सच्चाई भी इसी के इर्द गिर्द ही है। ऐसे में खुद को समाज का अगुवा समझने के नाते समाज को पीछे से सहयोग करें तो समाज सक्षम होने पर आपकी राजनैतिक दुर्दशा को भी नई दिशा दे सकता है।
सादर
लेखक
डॉ0 सी० एल० शीलू पाल
वैज्ञानिक एवं प्रबंध निदेशक
लखनऊ।
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