नारायण गुरु ने आत्मसम्मान का आन्दोलन चलाया था

 

प्रयागराज। एक दशक पूर्व केरल की हरी-भरी धरती सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का एक जीता-जागता उदाहरण था। स्वामी विवेकानन्द जिसे "पागलखाने" की संज्ञा तक दे डाली थी। जहां की एक तिहाई से ज्यादा आवादी अछूतों की मानी जाती थी। जिनके लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों के दरवाज़े बन्द तो थे ही साथ ही देवी देवताओं की पूजा करने, मन्दिर जाने तक पाबंदी थी उक्त बातें यमुनापार की तहसील बारा के विकास खण्ड भीटा में डा. अम्बेडकर वेलफेयर एसोसिएशन (दावा) के अध्यक्ष प्रबुद्ध फाउंडेशन के सचिव उच्च न्यायालय के अधिवक्ता आईपी रामबृज ने आत्मसम्मान आन्दोलन के नायक नारायण गुरु की 167 वीं जयन्ती पर कही।
       आईपी रामबृज ने आगे बताया कि नारायण गुरु का जन्म केरल राज्य के तिरुवनंतपुरम जिले के एक छोटे से गांव चेंपाजंती के इजवा समुदाय में हुआ था। नारायण गुरु जन्म से अछूत थे लेकिन रमन पिल्लै जो उच्चवर्ण के हिन्दू थे। नारायण गुरु ने उनके घर से बाहर रहकर अध्ययन किया जो आगे चलकर एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुये और अपने शिक्षकों के समक्ष संस्कृत में अपनी विद्वता सिद्ध कर दी।

        समाजसेवी फूलचंद्र ने बताया कि नारायण गुरु ने समाज कार्य मे सबसे पहले तिरुवनंतपुरम से दक्षिण आरुविपुरम में नैय्यर नदी के तट पर 1888 में शिवलिंग की स्थापना करके इस मान्यता को ठुकरा दिया कि एक ब्राह्मण ही मन्दिर का पुजारी हो सकता है। ब्राह्मणो के विरोध पर उन्होंने कहा कि ये ब्राह्मणों के शिव नहीं हमारे शिव है। हिन्दू मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित है वे इस मंदिर में निर्बाध आ सकते है। 1820 में त्रिशूर में नारायण गुरु द्वारा स्थापित कारामुक्कू मन्दिर में किसी देवता की मूर्ति नहीं बल्कि एक दीपक स्थापित किया था। जिसका संदेश था चहुँओर प्रकाश ही प्रकाश हो। 1822 में मुरुक्कुमपुझा में बनवाये गये मन्दिर में देव प्रतिमा की जगह सत्य, धर्म, प्रेम, दया लिखवाया था। 1824 मे नारायण गुरु द्वारा स्थापित अन्तिम मन्दिर कलवनकोर मन्दिर के गर्भगृह में एक दर्पण लगवाया।

      समाजसेवी अमरजीत ने बताया कि नारायण गुरु ने संगठन, शिक्षा और औद्योगिक विकास जैसे सामाजिक प्रगति के लिए तीन सुझाव बताये थे। आज केरल में जो सामाजिक, आर्थिक और औद्योगिक विकास दिख रहा है इसका श्रेय नारायण गुरु को जाता है।

        समाजसेवी राकेश कुमार कनौजिया ने बताया कि मन्दिर के गर्भगृह में दर्पण रखना और उसका अभिषेक हिन्दू उच्चवर्ण के वर्चस्व के खिलाफ था जो जाति और धर्म को सुधारने का एक प्रयास था जिसने व्यक्तियों के आत्म सम्मान, सम्मान और मानवीय मूल्य को बढ़ाया। नारे गुरु ने मंदिरों, पुजारियों, भिक्षुओं और मठों को अपने संस्थानों के साथ बैधता का एक समानांतर स्रोत स्थापित किया।

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