आर.टी.ई अधिनियम के तहत फीस प्रतिपूर्ति की धनराशि सीधे पात्र बच्चों के अभिभावकों के बैंक खाते में भेजे सरकार!

गुणवत्तापूर्ण एवं रोजगारपरक शिक्षा किसी भी देश के विकास की आधारशिला होती है, जिसको मजबूत किये बिना हम एक स्वस्थ एवं सशक्त समाज और राष्ट्र की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन जब इस आधारशिला की नींव सामाजिक भेदभाव एवं असमानता पर आधारित हो जाये तो इसे हम न तो स्वस्थ एवं सशक्त समाज के लिए शुभ संकेत मान सकते हैं और न हीं देश के विकास का मूल मंत्र। दुर्भाग्यवश देश का भविष्य माने जाने वाली हमारी बाल एवं युवा पीढ़ी के मन-मस्तिष्क में इस शिक्षा व्यवस्था ने जिस तरह से सामाजिक भेदभाव एवं असमानता का बीज बो दिया है, वो भारतीय संविधान की उस प्रस्तावना से मेल नहीं खाती जिसके अनुसार भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को सामाजिक न्याय व अन्य सामाजिक स्तरों जैसे बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए समान अवसर प्रदान करने का भरोसा देती है।
हम बात कर रहे है शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 की। जिसे आज से लगभग 11 वर्ष पूर्व देश के संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देते हुए 6 से 14 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने के लिए सारे देश में लागू किया गया था। इस कानून को लागू करते समय देश को इस बात का भरोसा दिया गया था कि अब इस अधिनियम के माध्यम से न केवल देश के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जायेगी बल्कि देश के निजी स्कूलों में कक्षा 1 से 8 तक की 25 प्रतिशत सीटों पर कमजोर एवं वंचित वर्ग के बच्चों को प्रवेश दिलाकर देश के अमीर एवं गरीब बच्चों के बीच की सामाजिक खाई को भी पाटने का काम किया जायेगा। जहां तक रही बात निजी स्कूलों में इन छात्रों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने की तो उसमें तो यह अधिनियम सफल कहा जा सकता है, लेकिन इस अधिनियम में अमीर-गरीब बच्चों के बीच में जिस सामाजिक खाई को पाटने एवं भेदभाव एवं असमानता को खत्म करने की बात की गयी थी, उसमें यह अधिनियम बिलकुल भी सफल नहीं कहा जा सकता।
इस अधिनियम के अनुसार देश के सभी मान्यता प्राप्त निजी स्कूलों को कक्षा 1 से 8 तक की 25 प्रतिशत सीटों पर देश के अलाभित समूह एवं दुर्बल वर्ग के छात्र-छात्राओं को निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जानी है। इन बच्चों की शिक्षा के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारे मिलकर बहुत बड़ी धनराशि फीस प्रतिपूर्ति के रूप में निजी स्कूलों को दे रहीं हैं। वास्तव में इन गरीब तबके के बच्चों की शिक्षा के लिए देश के अधिकांश निजी स्कूल इस अधिनियम के तहत अपने यहाँ प्रवेश भी दे रहे हैं और पढ़ा भी रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ जाने-अनजाने ये स्कूल वाले बच्चों के मन-मस्तिष्क में सामाजिक भेदभाव एवं असमानता का ऐसा विषैला बीज भी बोते जा रहे हैं, जो कि आने वाले समय में समाज और राष्ट्र दोनों के लिए काफी घातक सिद्ध हो सकता है।
इस गंभीर समस्या की जड़ में शिक्षा के अधिकार अधिनियम की वह धारा 12(1)(ग) है, जिसके तहत सरकार इन कमजोर वर्ग के बच्चों की शिक्षा के लिए निजी स्कूलों को फीस प्रतिपूर्ति की धनराशि देती है। होना तो यह चाहिए था कि सरकार यह धनराशि सीधे पात्र बच्चों के अभिभावकों को भी दे सकती है और पात्र बच्चों के अभिभावक इस फीस की धनराशि को स्वयं स्कूलों में जमा करते। लेकिन हुआ इसका उलटा, सरकार फीस प्रतिपूर्ति की इस धनराशि को इन कमजोर बच्चों को देने की बजाए सीधे स्कूलों को कर दे रही है। ऐसे में निजी स्कूलों का दृष्टिकोण इस अधिनियम के तहत प्रवेश पाने वाले गरीब बच्चों के प्रति अत्यन्त ही खराब रहता है। वे इन बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे ये बच्चे फ्री में स्कूल में पढ़ने आ गये हो। कभी-कभी उनका यह व्यवहार इन बच्चों के लिए और भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है, जबकि वे फीस देकर पढ़ने वाले सामान्य वर्ग के बच्चों के सामने इन दुर्बल आय वर्ग के बच्चों को अपमानित तक कर देते हैं। ऐसे में भेदभावपूर्ण और असमानता वाले इस व्यवहार के कारण गरीब तबके से आने वाले इन छोटे-छोटे बच्चों के मन-मस्तिष्क में बहुत ही गलत प्रभाव पड़ रहा है। छोटी सी इस उम्र पर उनके मस्तिष्क में सामाजिक भेदभाव और असमानता का विष घुलता जा रहा है।
शिक्षा में सुधार के लिए वर्ष 1964 में बनाये गये कोठारी आयोग की रिपोर्ट कहती है कि ‘‘यह शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि विभिन्न सामाजिक तबकों और समूहों को इकट्ठा लाए और इस प्रकार एक समतामूलक एवं एकजुट समाज के विकसित होने को प्रोत्साहित करे। लेकिन वर्तंमान में ऐसा करने के बजाय शिक्षा स्वयं ही सामाजिक भेदभाव और वर्गों के बीच के फासले को बढ़ा रही है। यह स्थिति गैर-लोकतांत्रिक है और समतामूलक समाज के आदर्श से मेल नहीं खाती है।’’ वास्तव में यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि कोठारी आयोग ने जिस सामाजिक भेदभाव की समस्या की ओर आज से कई वर्ष पूर्व हमारी सरकारों को ध्यान खींचा था वह खत्म होने की बजाए धीरे-धीरे और भी अधिक विकराल रूप लेती जा रही है। यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि पिछले कई वर्षों से मीडिया में प्रकाशित समाचार के अनुसार देश के कई राज्यों में निजी स्कूलों द्वारा फीस प्रतिपूर्ति की धनराशि को हड़पने की कई शिकायतें भी दर्ज की गई हैं। हद तो तब हो गई जब कई राज्यों के निजी स्कूलों ने तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ही अपने यहां पढ़ना बताकर सरकार से भारी मात्रा में फीस प्रतिपूर्ति की धनराशि हड़प ली।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश सरकार अपने नागरिकों के लिए 26 से भी अधिक विभागों के अंतर्गत 126 योजनाओं का पैसा डायरेक्ट बेनिफिट् ट्रांसफर (डी.बी.टी.) के माध्यम से सीधे लाभार्थियों के खाते में भेज रही हैं। अभी हाल ही में कोरोना महामारी के कारण देश भर में उत्पन्न हुई समस्याओं से ग्रसित प्रवासी नागरिकों, गरीबों एवं किसानों को बचाने के लिए भी केन्द्र एवं प्रदेश सरकारों द्वारा सीधे उनके बैंक खाते में धनराशि भेजी गई। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की सरकार उच्च शिक्षा के लिए सभी छात्रों को उनकी फीस की प्रतिपूर्ति व छात्रवृत्ति का भुगतान करने के साथ ही शिक्षा के अधिकार अधिनियम-2009 के तहत निजी स्कूलों में पढ़ रहें अलाभित समूह एवं दुर्बल वर्ग के बच्चों के बैग व ड्रेस आदि की खरीद के लिए उनके खाते में प्रति वर्ष पाँच हजार रूपये की धनराशि पहले से ही भेज रही है, लेकिन सरकार इन बच्चों को अपनी फीस स्वयं निजी स्कूलों में जमा करने का वह अधिकार नहीं दे रही है, जिसके मिलने से इन बच्चों के चेहरे पर आत्मविश्वास और इनके जीवन में खुशियाँ लायी जा सकती है। वास्तव में देश के कमजोर वर्ग के इन बच्चों के अभिभावकों को जिस दिन से सरकार ने अपनी फीस का भुगतान स्वयं करने का अधिकार उनके हाथ में दे दिया, उसी दिन से इन बच्चों के प्रति निजी स्कूलों के व्यवहार में परिवर्तन आना भी शुरू हो जायेगा और समाज की दशा और दिशा भी बदलने लगेगी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार ‘‘राज्य, कमजोर तबकों के लोगों और खास तौर पर अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के शैक्षिक व आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने पर विशेष ध्यान देगा और उनको सामाजिक अन्याय और शोषण के सभी रूपों से बचाने के लिए संरक्षण देगा।’’ इसी के साथ ही अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को कानून के सामने बराबरी या कानूनों के समतामूलक संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’’ इसलिए सरकार को चाहिए कि जिस तरह से सरकार इन गरीब एवं कमजोर वर्ग के बच्चों की पढ़ाई के लिए उन्हें स्कूल यूनिफार्म, किताब, कापियां, पेन व पेंसिल आदि की खरीद के लिए प्रति वर्ष 5 हजार रूपये की धनराशि सीधे इनके बैंक खातांे में भेज रही है, उसी तरह से अधिकार अधिनियम-2009 की धारा 12(1)(ग) के तहत फीस प्रतिपूर्ति की धनराशि भी निजी स्कूलों को न देकर सीधे इन बच्चों के बैंक खातों में भेजे, तभी सही मायने में इस अधिनियम के उद्देश्य की पूर्ति हो सकेगी।
- अजय कुमार श्रीवास्तव, शैक्षिक चिन्तक
एम.ए. (राजनीति विज्ञान एवं समाज शास्त्र)
आवास: 3/277, विराट खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ मोबाइल 94159-60146
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